सन्दर्भ : अमर वार्ता टेप कथा/ आलेख : योगेश किसलय
इस देश के सबसे बड़े तबके मध्य वर्ग को अब अपने हालत पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं अब उनके लिए गर्व करने का मौका आ गया है . धन्यवाद कीजिये देश के " मुखर वक्ता , धर्मनिरपेक्ष नेता , व्यापारी ,उद्योगपति ,राजनीतिज्ञ , सांसद और ना जाने क्या क्या ....विशेषणों से सुशोभित ठाकुर अमर सिंह का जिनकी अमर वार्ता कथा टेप के जरिये आम लोगो तक आया . भारतीय राजनीति के इस स्वयं सिद्ध पवित्र राजनीतिज्ञ के टेप आप सुन लेंगे तो मेरे आपके जैसे लोग गर्व करेंगे कि हम भले गरीब हैं पॉवर विहीन हैं मीडिया से उपेक्षित है ,लेकिन असली भरतीय है जिसका सबसे अधिक योगदान देश के निर्माण ,प्रतिष्ठा ,समृद्धि और विकास से जुड़ा है .
पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर इस टेप में क्या है . लगभग बीस खंड में ये टेप जारी किये गए हैं जिसमे अमर सिंह की बात राजनीतिज्ञ से ,उद्योगपति से , फिल्म स्टार से , पत्रकार से , ब्यूरोक्रेट से और लाइजनिंग करने वालो से है . अगर पूरी वार्ता आप सुन लेंगे तो यही लगेगा कि जो हस्तिया मीडिया में खुद को आदर्श के रूप में पेश करती है वो भीतर से कितने खोखले हैं . उनमे ना तो जमीर है ना शर्मो हया है ना संविधान के प्रति सम्मान है ना गरीबो के लिए सहानुभूति है ना ही देश के प्रति चिंता है . ना इज्जत की चिंता ना फिकर किसी अपमान की ...जय बोलो बेईमान की .
टेप में हर वर्ग के लिए मसाला है. एक उद्योगपति किस तरह से कोई काम निकलवाने के लिए गैरकानूनी रास्ता अपनाता है और मीडिया उसपर हो हल्ला मचाती है तो मीडिया वालो को माँ बहन किया जाता है . एक संपादक किस तरह से हाथ जोड़े अमर सिंह के सामने गिड़गिडाता नजर आता है,, एक लैजिनिंग करने वाली किस तरह से सुप्रीम कोर्ट के जजों के चरित्र पर सवाल खड़ा करती नजर आती है , एक ब्यूरोक्रेट किस तरह से नेता के सामने साष्टांग होता दिखता है और राजनीतिज्ञ ?.. उनकी तो हरि अनंत हरि कथा अनंता . ...अखबारों और मीडिया में फिल्म स्टार के साथ अमर वार्ता को सार्वजानिक भी कर दिया है इसे पढ़कर कोई भी इस " बुढऊ" और तथाकथित फिल्म कलाकार के चरित्र को समझ सकता है . टेप में कई बाते ऐसी है जिसका बखान सभ्य समाज में नहीं किया जा सकता लेकिन अमर संवाद का क्या स्तर होगा यह समझ सकते हैं .
हलाकि अब अमर सिंह ने इस टेप को फर्जी बताया है लेकिन उनके मुखारविंद से निकली बाते हमारे समाज के उस क्रीमी लेयर के रहन सहन ,उनके इरादे और भावना को जगजाहिर कर दिए हैं . दोस्तों हम इन्ही शक्सियतो को अपना आदर्श मानने की भूल कर बैठे हैं इन्हें हीरो समझने लगे हैं ,अपना और देश का भाग्य विधाता मानने लगे हैं इस मानसिकता को उखाड़ फेंकिये हम और आप में लाख कमी है लेकिन दिल में थोड़ी जमीर है , शर्मोहया है , देश और कानून के प्रति सम्मान है . देश और समाज के लिए कुछ करने की तमन्ना है . हम परदे के पीछे के सिपाही हैं . यह जान लीजिये निम्न और मध्य वर्ग की संवेदना ,उनका प्रयास ही है कि समाज और देश का सम्मान बचा हुआ है .राज्य देश और समाज के विकास में हमारी ही भूमिका है . ऊपर वाले तो फल तोड़ने वाले हैं , बहेलिया हैं . उनके लिए देश , कानून, कोर्ट, नैतिकता, इज्जत कुछ भी नहीं है .इन चेहरों ने देश और देशवासियों को खूब लूटा है कम ही सही लेकिन देश का यह निम्न और मध्यवर्ग ने देश को काफी कुछ दिया है जो ठोस और उत्साहवर्धक भी है
भाइयो , हम मध्य वर्ग के लोग खुद को निरीह , लाचार ,कमजोर और अभिशप्त मानने लगे हैं . हमने अपनी किस्मत ऐसे ही भाग्य विधाताओ के हाथो गिरवी रखा दिया है , इनके रहन सहन , धन संपत्ति और शक्ति की चका चौंध के सामने हम मिमियाते रहते हैं . भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने इन टेपो को सार्वजानिक करने का फैसला दिया . हमे नजरो का मोतियाबिंद थोडा कम होगा और हमें खुद के होने पर गर्व महसूस होगा . साथियों अब तो जश्न का मौका है मेरे साथ नारा लगाइए .....हिप हिप हुर्रे .......
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Yogesh Kislaya
India TV , Jharkhand
खबर 4 RANCHI
अपने विचारों के प्रसार पर कठोर नज़र रखते हुए एक प्रयास ...
Wednesday, 18 May 2011
हारो तो हूरो और जीतो तो थूरो
सन्दर्भ / अतिक्रमण हटाओ अभियान आलेख / योगेश किसलय
झारखण्ड में अतिक्रमण हटाने का मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक संगठनो के लिए एक विटामिन युक्त खुराक बन गया है जिसमे इन्हें अपने संगठन का बाजार उड़ान भरता दिख रहा है . कोई खुद को गाँधी या अन्ना हजारे साबित करता दिख रहा है तो कोई गरीब गुरबो का सबसे बड़ा हमदर्द , तो कई परदेसी चेहरे(दूसरे राज्यों के ) अपना राजनीतिक और सामाजिक ठौर बनाने के लिए झारखण्ड आकर चेहरा चमका गए. गली, नुक्कड़, चौराहे, अनशन और प्रदर्शन से तारी हो गया है .होड़ लग गयी है गरीबो का सबसे उत्तम सरमायादार कौन . गरीबो के नाम पर इतनी राजनीति गरीबी हटाओ अभियान के दौरान भी नहीं हुई थी .अब इन अदालती निर्देशों की अवहेलना कैसे की जाये इसके लिए भी खादी वाले भाइयो ने जुगाड़ बिठा रखा है वे अदालत के आदेशो को अपने ही तरीके से समझाते हैं और अदालत के आदेशो की तामीली को सरकारी कारवाई बताते हैं . यानि " हारो तो हूरो ,और जीतो तो थूरो " . इन महानुभावो से सवाल यह है कि -----
कौन है गरीब ?
क्या वह जिसके लिए कानून , सरकार , संविधान ,पुलिस ,प्रशासन सभी गौण है . गरीब के नाम पर कुछ भी करने की छूट है . गरीब के नाम पर वह सरकारी जमीं पर कब्ज़ा कर सकता है , गरीब के नाम पर सड़क या चौराहे पर दुकान खोल ले सकता है गरीब के नाम पर अवैध निर्माण कर सकता है . यह तो बिना पूँजी लगाये अच्छा धंधा है . गरीब का तमगा लगा लो और सरकारी जमीं --मकान ढांप लो , अगर कोई हटाने आये तो कहो कि बदले में मुफ्त की जमीन दो , पुनर्वास दो नहीं तो हम कहाँ जाये . और यह केवल रहने के लिए नहीं, साहब को धंधे के लिए भी जगह दो मुफ्त में . वर्ना इनके सरमायेदार झंडा पताका लेकर जुलूस निकलेंगे , धरना देंगे और सडको पर उत्पात मचाएंगे , अनशन करेंगे कि गरीब के पेट में लात मारा जा रहा है खादी वाले भाइयो को वोट की चिंता सता रही है . वह तो शुक्र है कि अतिक्रमण हटाने का मामला अदालत के निर्देश पर चल रहा है वरना सत्ता में बैठे रहनुमाओं को भी कीचड लपेटने से गुरेज नहीं होता .
अब हकीकत क्या है इसे भी समझे -----
१.अतिक्रमण से उजड़ने वाले अस्सी फीसदी गरीब नहीं थे . उनके घर कोई झोपडी नहीं थे .उनमे सुविधा के तमाम साधन थे . कई मकान तो दो तला या तीन तल्ला भी थे जिसमे मकान बनाने वाला नहीं रहता था बल्कि वह किराये पर उठा दिया गया था . अतिक्रमित क्षेत्र में दूकान तक बनाया गया जिसे किराये पर उठाया गया .. ये इलाके शहर के बीचोबीच पड़ते है जिस जमीन की कीमत करोडो या अरबो में होगी . यानि गरीबी के नाम पर लाखो की जमीं पर कब्ज़ा करना सही है
२ अगर इन उजड़े गरीबो की पृष्ठभूमि समझे तो पता चलेगा कि अधिकांश लोग दूसरे राज्यों से यहाँ आये और जहाँ मौका मिला जमीं ले ली . भले ही वह सरकारी जमीं क्यों न हो . झारखण्ड के सार्वजनिक कंपनियों के इलाके में अतिक्रमित लोगो का इतिहास देखे तो साफ़ जाहिर होगा कि जिन्होंने अधिग्रहण के दौरान अपनी जमीन सरकार को दे दी वे तो भूमिहीन हो गए लेकिन जिन्होंने उनके विस्थापन को लेकर झंडा उठाया उन्होंने ही सरकारी जमीन पर झंडा गाड़ा . अब वे विस्थापित होने का ढोंग कर रहे हैं . आंकड़े निकाले जाये तो स्पष्ट होगा कि अतिक्रमण से हटाये गए लोगो में मुश्किल से कुछ प्रतिशत आदिवासी और कुछ प्रतिशत ही स्थानीय लोग हैं . आप बिहार के गाँव में जाकर देखे अधिकांश घरो में आपको तले लटके मिलेंगे इसलिए कि वहा के लोग झारखण्ड और दूसरे इलाको में कमाने खाने गए हैं . यह उनका अधिकार है लेकिन यह कहना कि वे गरीब और भूमिहीन हैं गलत होगा
३ रांची की सडको के बीचो बीच ठेला लगाकर या चादर बिछाकर बाजार लगाने का क्या मतलब . गरीब हाकर है तो सड़क पर ही कब्ज़ा जमा लेंगे सड़क पर चलने वालो को कितनी परेशानिया थी यह खादी धारियों को पता नहीं चलेगा क्योंकि उनके लिए पायलट गाड़ी सायरन बजाती गाड़िया और उनके लिए सड़क ख़ाली कराने के लिए आम लोगो पर डंडे भांजती पुलिस जो लगी होती है . मान लीजिये गरीबी का हवाला देकर सड़क के बीचोबीच मै एक खटिया लगाकर बनियान बेचना शुरू कर दू तो आप बर्दाश्त करेंगे .
४ इन खादी वाले भाइयो की एक तार्किक मांग यह भी है कि जिस अधिकारी के कार्यकाल में अतिक्रमण हुआ उसपर भी कार्रवाई हो . बिलकुल हो .. लेकिन यह अतिक्रमण तब हुआ जब लालू का राज था . तब जिले के उपायुक्त से लालू खैनी बनवाया करते थे . ऐसे में किस अधिकारी की हिम्मत थी कि लालू के चमचो बेलचो को सरकारी जमीन हडपने से रोकता .बिहार में भी लालू के जाने के बाद ही वही अधिकारी कार्यकुशल बन गए जो लालू के काल में निकम्मे थे . इसके बाद भी मै कहता हूँ कि उन अधिकारियो पर कार्रवाई हो
वैसे जनाब , गरीबी कोई स्थिति नहीं होती केवल मानसिकता होती है . मै रांची के प्रमुख चौराहे पर आज भी जब एक महिला को फल बेचते देखता हूँ तो उसके प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ आती है . दस साल पहले इसी महिला को मैंने अपने विडिओ कैमरे में अपने बच्चे को बेचते शूट किया था . न जाने कब इस महिला का दिमाग पलटा और आज अच्छी खासी अपनी दुनिआदारी फल बेचकर चला रही है. इसीलिए गरीबी की परिभाषा राजनैतिक स्वार्थो के चश्मे से तय न की जाये जब एक उतनी लाचार महिला जीने का सहारा खोज सकती है तो गरीबी के नाम पर भिखमंगी क्यों की जाये .
... और हे गरीब जनों आप जान ले ये जो आपके लिए लड़ने मरने का ढोंग कर रहे हैं उन्हें आपकी चिंता नहीं है उन्हें आपके वोट की चिंता है . आपकी चिंता करके इन्हें अपने पैरो में कुल्हाड़ी मारनी है क्या . फिर कैसे गरीब के नाम पर वोट , दलित के नाम पर वोट , अल्पसंख्यक के नाम पर वोट पिछडो के नाम पर वोट मिलेगा . इन्हें अपने बाजार से मतलब है .जिस दिन आप जाग जायेंगे ओसामा की तरह कोई कंक्रीट लगा दीवार का ठौर खोज लेंगे और अज्ञातवास पर चले जायेंगे .
..अंत में मै कोई सरकारी प्रवक्ता नहीं हूँ अमीरों का एजेंट नहीं हूँ . इकतालीस साल से रांची में रह रहा हूँ लेकिन अपना घर रांची में नहीं है .मेरे पूर्वज पांच सौ सालों से झारखण्ड के वाशिंदा हैं और रांची जिले के ही एक गाँव में उन्होंने घर बनाया . उसका भी कुछ हिस्सा तोडा जा रहा है अतिक्रमण के कारण .ठीक है टूटना चाहिए . मै कोई करोडपति भी नहीं हूँ कि ऐसे आलेख उसी अमीरत्व के दंभ में लिख ली जाये . मुझे लगा कि सभी बहस की गंगा में अपने बोल वचन भी बहा रहे हैं तो कुछ कडवे सत्य भी आपके नजर पेश की जाये .......
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Yogesh Kislaya
India TV , Jharkhand
झारखण्ड में अतिक्रमण हटाने का मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक संगठनो के लिए एक विटामिन युक्त खुराक बन गया है जिसमे इन्हें अपने संगठन का बाजार उड़ान भरता दिख रहा है . कोई खुद को गाँधी या अन्ना हजारे साबित करता दिख रहा है तो कोई गरीब गुरबो का सबसे बड़ा हमदर्द , तो कई परदेसी चेहरे(दूसरे राज्यों के ) अपना राजनीतिक और सामाजिक ठौर बनाने के लिए झारखण्ड आकर चेहरा चमका गए. गली, नुक्कड़, चौराहे, अनशन और प्रदर्शन से तारी हो गया है .होड़ लग गयी है गरीबो का सबसे उत्तम सरमायादार कौन . गरीबो के नाम पर इतनी राजनीति गरीबी हटाओ अभियान के दौरान भी नहीं हुई थी .अब इन अदालती निर्देशों की अवहेलना कैसे की जाये इसके लिए भी खादी वाले भाइयो ने जुगाड़ बिठा रखा है वे अदालत के आदेशो को अपने ही तरीके से समझाते हैं और अदालत के आदेशो की तामीली को सरकारी कारवाई बताते हैं . यानि " हारो तो हूरो ,और जीतो तो थूरो " . इन महानुभावो से सवाल यह है कि -----
कौन है गरीब ?
क्या वह जिसके लिए कानून , सरकार , संविधान ,पुलिस ,प्रशासन सभी गौण है . गरीब के नाम पर कुछ भी करने की छूट है . गरीब के नाम पर वह सरकारी जमीं पर कब्ज़ा कर सकता है , गरीब के नाम पर सड़क या चौराहे पर दुकान खोल ले सकता है गरीब के नाम पर अवैध निर्माण कर सकता है . यह तो बिना पूँजी लगाये अच्छा धंधा है . गरीब का तमगा लगा लो और सरकारी जमीं --मकान ढांप लो , अगर कोई हटाने आये तो कहो कि बदले में मुफ्त की जमीन दो , पुनर्वास दो नहीं तो हम कहाँ जाये . और यह केवल रहने के लिए नहीं, साहब को धंधे के लिए भी जगह दो मुफ्त में . वर्ना इनके सरमायेदार झंडा पताका लेकर जुलूस निकलेंगे , धरना देंगे और सडको पर उत्पात मचाएंगे , अनशन करेंगे कि गरीब के पेट में लात मारा जा रहा है खादी वाले भाइयो को वोट की चिंता सता रही है . वह तो शुक्र है कि अतिक्रमण हटाने का मामला अदालत के निर्देश पर चल रहा है वरना सत्ता में बैठे रहनुमाओं को भी कीचड लपेटने से गुरेज नहीं होता .
अब हकीकत क्या है इसे भी समझे -----
१.अतिक्रमण से उजड़ने वाले अस्सी फीसदी गरीब नहीं थे . उनके घर कोई झोपडी नहीं थे .उनमे सुविधा के तमाम साधन थे . कई मकान तो दो तला या तीन तल्ला भी थे जिसमे मकान बनाने वाला नहीं रहता था बल्कि वह किराये पर उठा दिया गया था . अतिक्रमित क्षेत्र में दूकान तक बनाया गया जिसे किराये पर उठाया गया .. ये इलाके शहर के बीचोबीच पड़ते है जिस जमीन की कीमत करोडो या अरबो में होगी . यानि गरीबी के नाम पर लाखो की जमीं पर कब्ज़ा करना सही है
२ अगर इन उजड़े गरीबो की पृष्ठभूमि समझे तो पता चलेगा कि अधिकांश लोग दूसरे राज्यों से यहाँ आये और जहाँ मौका मिला जमीं ले ली . भले ही वह सरकारी जमीं क्यों न हो . झारखण्ड के सार्वजनिक कंपनियों के इलाके में अतिक्रमित लोगो का इतिहास देखे तो साफ़ जाहिर होगा कि जिन्होंने अधिग्रहण के दौरान अपनी जमीन सरकार को दे दी वे तो भूमिहीन हो गए लेकिन जिन्होंने उनके विस्थापन को लेकर झंडा उठाया उन्होंने ही सरकारी जमीन पर झंडा गाड़ा . अब वे विस्थापित होने का ढोंग कर रहे हैं . आंकड़े निकाले जाये तो स्पष्ट होगा कि अतिक्रमण से हटाये गए लोगो में मुश्किल से कुछ प्रतिशत आदिवासी और कुछ प्रतिशत ही स्थानीय लोग हैं . आप बिहार के गाँव में जाकर देखे अधिकांश घरो में आपको तले लटके मिलेंगे इसलिए कि वहा के लोग झारखण्ड और दूसरे इलाको में कमाने खाने गए हैं . यह उनका अधिकार है लेकिन यह कहना कि वे गरीब और भूमिहीन हैं गलत होगा
३ रांची की सडको के बीचो बीच ठेला लगाकर या चादर बिछाकर बाजार लगाने का क्या मतलब . गरीब हाकर है तो सड़क पर ही कब्ज़ा जमा लेंगे सड़क पर चलने वालो को कितनी परेशानिया थी यह खादी धारियों को पता नहीं चलेगा क्योंकि उनके लिए पायलट गाड़ी सायरन बजाती गाड़िया और उनके लिए सड़क ख़ाली कराने के लिए आम लोगो पर डंडे भांजती पुलिस जो लगी होती है . मान लीजिये गरीबी का हवाला देकर सड़क के बीचोबीच मै एक खटिया लगाकर बनियान बेचना शुरू कर दू तो आप बर्दाश्त करेंगे .
४ इन खादी वाले भाइयो की एक तार्किक मांग यह भी है कि जिस अधिकारी के कार्यकाल में अतिक्रमण हुआ उसपर भी कार्रवाई हो . बिलकुल हो .. लेकिन यह अतिक्रमण तब हुआ जब लालू का राज था . तब जिले के उपायुक्त से लालू खैनी बनवाया करते थे . ऐसे में किस अधिकारी की हिम्मत थी कि लालू के चमचो बेलचो को सरकारी जमीन हडपने से रोकता .बिहार में भी लालू के जाने के बाद ही वही अधिकारी कार्यकुशल बन गए जो लालू के काल में निकम्मे थे . इसके बाद भी मै कहता हूँ कि उन अधिकारियो पर कार्रवाई हो
वैसे जनाब , गरीबी कोई स्थिति नहीं होती केवल मानसिकता होती है . मै रांची के प्रमुख चौराहे पर आज भी जब एक महिला को फल बेचते देखता हूँ तो उसके प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ आती है . दस साल पहले इसी महिला को मैंने अपने विडिओ कैमरे में अपने बच्चे को बेचते शूट किया था . न जाने कब इस महिला का दिमाग पलटा और आज अच्छी खासी अपनी दुनिआदारी फल बेचकर चला रही है. इसीलिए गरीबी की परिभाषा राजनैतिक स्वार्थो के चश्मे से तय न की जाये जब एक उतनी लाचार महिला जीने का सहारा खोज सकती है तो गरीबी के नाम पर भिखमंगी क्यों की जाये .
... और हे गरीब जनों आप जान ले ये जो आपके लिए लड़ने मरने का ढोंग कर रहे हैं उन्हें आपकी चिंता नहीं है उन्हें आपके वोट की चिंता है . आपकी चिंता करके इन्हें अपने पैरो में कुल्हाड़ी मारनी है क्या . फिर कैसे गरीब के नाम पर वोट , दलित के नाम पर वोट , अल्पसंख्यक के नाम पर वोट पिछडो के नाम पर वोट मिलेगा . इन्हें अपने बाजार से मतलब है .जिस दिन आप जाग जायेंगे ओसामा की तरह कोई कंक्रीट लगा दीवार का ठौर खोज लेंगे और अज्ञातवास पर चले जायेंगे .
..अंत में मै कोई सरकारी प्रवक्ता नहीं हूँ अमीरों का एजेंट नहीं हूँ . इकतालीस साल से रांची में रह रहा हूँ लेकिन अपना घर रांची में नहीं है .मेरे पूर्वज पांच सौ सालों से झारखण्ड के वाशिंदा हैं और रांची जिले के ही एक गाँव में उन्होंने घर बनाया . उसका भी कुछ हिस्सा तोडा जा रहा है अतिक्रमण के कारण .ठीक है टूटना चाहिए . मै कोई करोडपति भी नहीं हूँ कि ऐसे आलेख उसी अमीरत्व के दंभ में लिख ली जाये . मुझे लगा कि सभी बहस की गंगा में अपने बोल वचन भी बहा रहे हैं तो कुछ कडवे सत्य भी आपके नजर पेश की जाये .......
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Yogesh Kislaya
India TV , Jharkhand
दुआ करो किसी दुश्मन की बद्दुआ न लगे
सन्दर्भ : अन्ना हजारे / आलेख : योगेश किसलय
ग्लोबलाइजेशन का विरोध करने वालो देख लो हम बुरे ही नहीं अच्छी बाते भी सीख रहे हैं . ट्यूनीशिया , मिस्र और लीबिया के विद्रोह ने भारत में भी दस्तक दी है . भारत में लोकतंत्र की बहाली जैसा कोई मुद्दा नहीं लेकिन लोकतंत्र की साफ़ छवि के लिए हम तरस रहे है . कई सर्वेक्षणों ने तो हमें मुह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा है जिसमे भारत को भ्रष्टतम देश बताया गया है . ऐसे लोकतंत्र का क्या फायदा जहाँ आजादी के नाम पर जंगल राज है भ्रष्टाचार करने की छूट है . जय हो अन्ना हजारे की जिन्होंने सवा अरब भारतीयों की दुखती रग को पकड़ा . सही है यह दूसरी आजादी का आन्दोलन है . इस आजादी की मुहिम ने जैसा जोर पकड़ा है उससे साफ़ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम कितने बेचैन हैं . अन्ना हजारे ने इस आन्दोलन में राजनीतिक दलों को दूर रखा है यह सबसे अहम् रणनीति है . सिर्फ एक डर है कि कही अपनी उपेक्षा से बौखलाए ये राजनैतिक विधाता कोई ऐसा सर्वदलीय कदम न उठा ले जिसमे संवैधानिक और सामाजिक तौर पर हम पंगु हो जाये . जी हां मेरा इशारा इमरजेंसी जैसी अलोकतांत्रिक कदम से है . चीन में सरकार ने इन्टरनेट के सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर प्रतिबन्ध लगा दिया है . भारत में कही ऐसा न हो क्योंकि विरोध करने वाले विपक्ष या राजनैतिक दलों के भी हित इस आन्दोलन के कारण कुचले जा सकते हैं . अन्ना हजारे और उनके समर्थको ने राजनेताओ को बेआबरू करके लौटाया है इससे उनके अहम् फुंफकार रहे होंगे . हलाकि ज्यादा डर की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि अन्ना के समथन में जनसैलाब उमड़ा है उसे नकारना आसान नहीं होगा
दूसरा डर यह है कि जे पी का आन्दोलन जिस तरह बाद में विफल साबित हुआ और आन्दोलनकारी ही बाद में भ्रष्टाचार में डूबते चले गए कही अन्ना भी घाघ सिपहसालारो के फेर में न पड जाये और आन्दोलन भटक जाये . स्वामी अग्निवेश ऐसे ही निहायत ही निकट के सहयोगी है जो एक तरफ नक्सलियो के हमदर्द बनते दिखते हैं और दूसरी तरफ अन्ना की कमान भी सँभालने का नाटक कर रहे हैं .ऐसे लोगो से आन्दोलन को बचाना होगा . कुछ स्वयं सेवी संगठन या सामाजिक संगठन इस मुद्दे को दलित गरीब जाति धर्म से जोड़कर भाषण बाजी करने लगे हैं .जाहिर है आन्दोलन को बांटने की साजिश भी साथ साथ चल रही है भ्रष्टाचार ने तो अमीर गरीब ही नहीं जाति धर्म के दीवार को भी तोड़ दिया है तो इसके खिलाफ आन्दोलन में ऐसे विषयो को उठाना नाजायज ही होगा .
अन्ना ने अन्न क्या छोड़ा हजारो नहीं करोडो लोगो ने इसे हाथो हाथ लिया . जाहिर है भ्रष्टाचार से दुखी पूरा समाज था . बाबा रामदेव और कुछ और लोगो ने आवाज भी उठाया लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गयी . कहने में कठोर लगता है लेकिन इसकी वजह इनका मीडिया प्रेम रहा है . लोगो को लगा कि इनकी हुंकार केवल मीडिया तक ही है .अन्ना हजारे कभी मीडिया के मोहताज नहीं रहे इसलिए लोगो के दिलो तक उनकी बात पहुची तीसरा डर यह है कि जिस रफ़्तार से इस आन्दोलन ने जोर पकड़ा है उसकी रफ़्तार कबतक कायम रहेगी कहीं सरकार के लुभावने बोल से टूट न पड़ने लगे और अंजाम तक पहुचने से पहले ही आन्दोलन थक जाये .
चौथा और सबसे बड़ा डर ---- भ्रष्टाचार का गहरे जड़ तक अपनी पैठ जमा चुका है आन्दोलन से जुड़ने वाले और कुछ हद तक कुछ आन्दोलनकारी भी भ्रष्टाचार की इस व्यवस्था के बेनिफिशियारी यानि लाभुक हैं ऐसे में परोक्ष , अपरोक्ष, नैतिक , पारिवारिक और सामाजिक दबाव के आगे एक एक कर लोग किनारे न हटते जाये .
लेकिन कुल मिलाकर एक जीवट , भव्य ,विशाल और दिल से जुड़ा आन्दोलन , क्रांति या इन्कलाब शुरू हो गया है . ईश्वर हम प्रार्थना करे कि इस जंग में हमारी जीत हो . आखिर हम मानते भी हैं कि सत्यमेव जयते !!!!!
ग्लोबलाइजेशन का विरोध करने वालो देख लो हम बुरे ही नहीं अच्छी बाते भी सीख रहे हैं . ट्यूनीशिया , मिस्र और लीबिया के विद्रोह ने भारत में भी दस्तक दी है . भारत में लोकतंत्र की बहाली जैसा कोई मुद्दा नहीं लेकिन लोकतंत्र की साफ़ छवि के लिए हम तरस रहे है . कई सर्वेक्षणों ने तो हमें मुह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा है जिसमे भारत को भ्रष्टतम देश बताया गया है . ऐसे लोकतंत्र का क्या फायदा जहाँ आजादी के नाम पर जंगल राज है भ्रष्टाचार करने की छूट है . जय हो अन्ना हजारे की जिन्होंने सवा अरब भारतीयों की दुखती रग को पकड़ा . सही है यह दूसरी आजादी का आन्दोलन है . इस आजादी की मुहिम ने जैसा जोर पकड़ा है उससे साफ़ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम कितने बेचैन हैं . अन्ना हजारे ने इस आन्दोलन में राजनीतिक दलों को दूर रखा है यह सबसे अहम् रणनीति है . सिर्फ एक डर है कि कही अपनी उपेक्षा से बौखलाए ये राजनैतिक विधाता कोई ऐसा सर्वदलीय कदम न उठा ले जिसमे संवैधानिक और सामाजिक तौर पर हम पंगु हो जाये . जी हां मेरा इशारा इमरजेंसी जैसी अलोकतांत्रिक कदम से है . चीन में सरकार ने इन्टरनेट के सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर प्रतिबन्ध लगा दिया है . भारत में कही ऐसा न हो क्योंकि विरोध करने वाले विपक्ष या राजनैतिक दलों के भी हित इस आन्दोलन के कारण कुचले जा सकते हैं . अन्ना हजारे और उनके समर्थको ने राजनेताओ को बेआबरू करके लौटाया है इससे उनके अहम् फुंफकार रहे होंगे . हलाकि ज्यादा डर की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि अन्ना के समथन में जनसैलाब उमड़ा है उसे नकारना आसान नहीं होगा
दूसरा डर यह है कि जे पी का आन्दोलन जिस तरह बाद में विफल साबित हुआ और आन्दोलनकारी ही बाद में भ्रष्टाचार में डूबते चले गए कही अन्ना भी घाघ सिपहसालारो के फेर में न पड जाये और आन्दोलन भटक जाये . स्वामी अग्निवेश ऐसे ही निहायत ही निकट के सहयोगी है जो एक तरफ नक्सलियो के हमदर्द बनते दिखते हैं और दूसरी तरफ अन्ना की कमान भी सँभालने का नाटक कर रहे हैं .ऐसे लोगो से आन्दोलन को बचाना होगा . कुछ स्वयं सेवी संगठन या सामाजिक संगठन इस मुद्दे को दलित गरीब जाति धर्म से जोड़कर भाषण बाजी करने लगे हैं .जाहिर है आन्दोलन को बांटने की साजिश भी साथ साथ चल रही है भ्रष्टाचार ने तो अमीर गरीब ही नहीं जाति धर्म के दीवार को भी तोड़ दिया है तो इसके खिलाफ आन्दोलन में ऐसे विषयो को उठाना नाजायज ही होगा .
अन्ना ने अन्न क्या छोड़ा हजारो नहीं करोडो लोगो ने इसे हाथो हाथ लिया . जाहिर है भ्रष्टाचार से दुखी पूरा समाज था . बाबा रामदेव और कुछ और लोगो ने आवाज भी उठाया लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गयी . कहने में कठोर लगता है लेकिन इसकी वजह इनका मीडिया प्रेम रहा है . लोगो को लगा कि इनकी हुंकार केवल मीडिया तक ही है .अन्ना हजारे कभी मीडिया के मोहताज नहीं रहे इसलिए लोगो के दिलो तक उनकी बात पहुची तीसरा डर यह है कि जिस रफ़्तार से इस आन्दोलन ने जोर पकड़ा है उसकी रफ़्तार कबतक कायम रहेगी कहीं सरकार के लुभावने बोल से टूट न पड़ने लगे और अंजाम तक पहुचने से पहले ही आन्दोलन थक जाये .
चौथा और सबसे बड़ा डर ---- भ्रष्टाचार का गहरे जड़ तक अपनी पैठ जमा चुका है आन्दोलन से जुड़ने वाले और कुछ हद तक कुछ आन्दोलनकारी भी भ्रष्टाचार की इस व्यवस्था के बेनिफिशियारी यानि लाभुक हैं ऐसे में परोक्ष , अपरोक्ष, नैतिक , पारिवारिक और सामाजिक दबाव के आगे एक एक कर लोग किनारे न हटते जाये .
लेकिन कुल मिलाकर एक जीवट , भव्य ,विशाल और दिल से जुड़ा आन्दोलन , क्रांति या इन्कलाब शुरू हो गया है . ईश्वर हम प्रार्थना करे कि इस जंग में हमारी जीत हो . आखिर हम मानते भी हैं कि सत्यमेव जयते !!!!!
यह क्रिकेट का जूनून नहीं देशप्रेम का जज्बा भी है यारो !!!!
आलेख : योगेश किसलय
क्रिकेट को हिकारत की दृष्टि से देखने वाले और भारत की विश्व विजय के जूनून में क्रिकेट के प्रति पागलपन समझने वाले लोगो को एक बात याद दिलाना चाहूँगा . कारगिल युद्ध के दौरान जैसे ही किसी शहीद का शव उसके शहर में आता था . लोग बिना बुलाये पागलो की तरह जुलूस में शामिल हो जाते थे . रांची के शहीद नागेश्वर महतो झारखण्ड के पहले शहीद थे . उनकी शवयात्रा में एअरपोर्ट से लेकर कांके तक जो जनसैलाब उमड़ा था और लोगो के आँखों से आंसुओं की धार निकली थी उसके गवाह आज भी उस स्थिति को रोंगटे खड़े कर देने वाली भावना बताते नहीं थकते . दो अप्रैल को रांची और देश भर की सडको पर जो जन सैलाब लोगो ने देखा यह उस भीड़ से कम नहीं था . क्रिकेट से नफरत करने वाले इसे लोगो की क्रिकेट के प्रति पागलपन से तुलना करते हैं लेकिन रात ग्यारह बजे सडको पर जो जज्बा दिखा वह देशप्रेम का उन्माद था . घर घर से लोग पैदल बाइक और गाडियों से दनदनाते सडको पर दौड़ पड़े . लगा कौन किससे अधिक खुश है इसका इजहार करने की होड़ लगी है रात के ग्यारह बजे ही सुबह हो गयी और बूढ़े बच्चे औरत मर्द गरीब अमीर सभी ने जश्न में हिस्सा लिया . ना तो बच्चो को गाडियों से टकराने का डर था ना लडकियों को छेड़े जाने का भय . एक ही जज्बा तारी था , कि देश ने विश्व विजय कर लिया है और वे उसी देश के सौभाग्यशाली बाशिंदे हैं .
कुछ अति आदर्शवादी और खेल से नफरत करने वाले लेकिन औचित्यहीन लोगो ने घर की छतो पर ही इस कथित " पागल पन " का मजाक उड़ाना चाहा लेकिन लोगो के जोश जज्बे और जूनून के सामने खुद को अकेला पाया . भारत में अगर क्रिकेट को धर्म कहा जाता है तो इसी धर्म ने हर वर्ग को एक धागे में पिरोया है . लोग क्रिकेट के अलावा खेलो की वकालत करते हैं करना चाहिए लेकिन क्रिकेट को केवल खेल नहीं बल्कि राष्ट्रधर्म से जोड़कर देखे तो शायद उन्हें देशप्रेम का जज्बा भी दिखाई पड़े क्रिकेट को केवल जूनून के रूप में नहीं बल्कि देशप्रेम के रूप में ले तो शायद सोच सार्थक होगी. आप सोच सकते हैं कि जिस गुजरात को मुस्लमान विरोधी माना जाता है वही के तीन मुस्लिम खिलाडी को देश और गुजरात के नागरिक सर पर बिठाते हैं यहाँ ना तो धर्म की बंदिश है ना जाति का टोटा ना क्षेत्रीयता का सवाल . पूरा देश एक है एक इकाई है जब जहीर खान रन अप पर दौड़ते हैं तो पंडितो के आशीर्वाद बरसते हैं और जब सचिन शतक की ओर होते हैं तो मजारो तक पर दुआए मांगी जाती है कौन सा संगठन सरकार या संस्था बिना बोले ,बिना प्रवचन - उपदेश के ऐसा धर्म निरपेक्ष समाज बना सकता है और अब तो किसी एक विधा (क्रिकेट ) का अपना देश चैम्पियन है गर्व करने का मौका मिला है इसमें दखलंदाजी ना हो . विघ्नसंतोषियो को इश्वर शांति दे ... आमीन !!!
( लेखक इंडिया टीवी के झारखण्ड प्रमुख हैं )
क्रिकेट को हिकारत की दृष्टि से देखने वाले और भारत की विश्व विजय के जूनून में क्रिकेट के प्रति पागलपन समझने वाले लोगो को एक बात याद दिलाना चाहूँगा . कारगिल युद्ध के दौरान जैसे ही किसी शहीद का शव उसके शहर में आता था . लोग बिना बुलाये पागलो की तरह जुलूस में शामिल हो जाते थे . रांची के शहीद नागेश्वर महतो झारखण्ड के पहले शहीद थे . उनकी शवयात्रा में एअरपोर्ट से लेकर कांके तक जो जनसैलाब उमड़ा था और लोगो के आँखों से आंसुओं की धार निकली थी उसके गवाह आज भी उस स्थिति को रोंगटे खड़े कर देने वाली भावना बताते नहीं थकते . दो अप्रैल को रांची और देश भर की सडको पर जो जन सैलाब लोगो ने देखा यह उस भीड़ से कम नहीं था . क्रिकेट से नफरत करने वाले इसे लोगो की क्रिकेट के प्रति पागलपन से तुलना करते हैं लेकिन रात ग्यारह बजे सडको पर जो जज्बा दिखा वह देशप्रेम का उन्माद था . घर घर से लोग पैदल बाइक और गाडियों से दनदनाते सडको पर दौड़ पड़े . लगा कौन किससे अधिक खुश है इसका इजहार करने की होड़ लगी है रात के ग्यारह बजे ही सुबह हो गयी और बूढ़े बच्चे औरत मर्द गरीब अमीर सभी ने जश्न में हिस्सा लिया . ना तो बच्चो को गाडियों से टकराने का डर था ना लडकियों को छेड़े जाने का भय . एक ही जज्बा तारी था , कि देश ने विश्व विजय कर लिया है और वे उसी देश के सौभाग्यशाली बाशिंदे हैं .
कुछ अति आदर्शवादी और खेल से नफरत करने वाले लेकिन औचित्यहीन लोगो ने घर की छतो पर ही इस कथित " पागल पन " का मजाक उड़ाना चाहा लेकिन लोगो के जोश जज्बे और जूनून के सामने खुद को अकेला पाया . भारत में अगर क्रिकेट को धर्म कहा जाता है तो इसी धर्म ने हर वर्ग को एक धागे में पिरोया है . लोग क्रिकेट के अलावा खेलो की वकालत करते हैं करना चाहिए लेकिन क्रिकेट को केवल खेल नहीं बल्कि राष्ट्रधर्म से जोड़कर देखे तो शायद उन्हें देशप्रेम का जज्बा भी दिखाई पड़े क्रिकेट को केवल जूनून के रूप में नहीं बल्कि देशप्रेम के रूप में ले तो शायद सोच सार्थक होगी. आप सोच सकते हैं कि जिस गुजरात को मुस्लमान विरोधी माना जाता है वही के तीन मुस्लिम खिलाडी को देश और गुजरात के नागरिक सर पर बिठाते हैं यहाँ ना तो धर्म की बंदिश है ना जाति का टोटा ना क्षेत्रीयता का सवाल . पूरा देश एक है एक इकाई है जब जहीर खान रन अप पर दौड़ते हैं तो पंडितो के आशीर्वाद बरसते हैं और जब सचिन शतक की ओर होते हैं तो मजारो तक पर दुआए मांगी जाती है कौन सा संगठन सरकार या संस्था बिना बोले ,बिना प्रवचन - उपदेश के ऐसा धर्म निरपेक्ष समाज बना सकता है और अब तो किसी एक विधा (क्रिकेट ) का अपना देश चैम्पियन है गर्व करने का मौका मिला है इसमें दखलंदाजी ना हो . विघ्नसंतोषियो को इश्वर शांति दे ... आमीन !!!
( लेखक इंडिया टीवी के झारखण्ड प्रमुख हैं )
Wednesday, 6 April 2011
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